विवेकानन्द साहित्य >> विवेकानन्द राष्ट्र को आह्वान विवेकानन्द राष्ट्र को आह्वानस्वामी ब्रह्मस्थानन्द
|
10 पाठकों को प्रिय 162 पाठक हैं |
प्रस्तुत है पुस्तक राष्ट्र को आह्वान
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्रस्तावना
(प्रथम संस्करण)
‘‘विवेकानंद–राष्ट्र को
आह्वान’’ हमारा नया
प्रकाशन है। इसे सघर्ष हम पाठकों के सम्मुख उपस्थित कर रहे हैं।
वास्तुस्थिति यह है कि आज भारत वर्ष में विभिन्न मत-मतान्तरों तथा विचारधाराओं में घोर पारस्परिक संघर्ष पा रहे हैं। फलतः देश भर में बड़ी अनिश्चतता तथा बेचैनी व्याप्त है। हो यह रहा है कि प्राचीन मूल सिद्धान्तों का चिरन्तर सत्य-समूह जिसमें हमें शक्ति दी थी, उत्साह एवं साहस प्रदान किया था, आज मानो एक किनारे खदेड़ दिया गया है और उसकी जगह अनेक नयी राजनीतिक तथा सामाजिक विचारधाराओं ने अपना अड्डा जमा लिया है, यहाँ तक कि आज चारित्रिक मापदण्ड भी बदल रहा है। ऐसा लगता है कि मानो इन सब नवीन विचारों ने देश पर धावा ही बोल दिया हो। यह विचारने की बात हैं !
अतः स्वतः सिद्ध मीमांसा यह है कि आज हमारे सम्मुख एक ऐसा मापदण्ड प्रस्तुत हो जो हमें सब बातों का ठीक सुस्पष्ट तथा असली मूल्य आँकने में सहायता करे और यह चीज नवयुवकों को लिए तो और भी अधिक आवश्यक है जिससे कि वे बिल्कुल सही असंदिग्ध और परिष्कृत मार्ग पर अग्रसर हो सकें।
आज की परिस्थितियों में स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाएँ तथा उनका सन्देश हमारे लिए कितना मूल्यवान है, इसे आँकना सहज नहीं हमारे राष्टीय जीवन का ऐसा कोई पहलू नहीं ऐसी कोई समस्या नहीं जिसका हल उसे उनकी शिक्षाओं में न मिल जाता हो-वे समस्याएं चाहे किसी व्यक्ति की हों, समाज की हों अथवा देश की हों। उनके शब्द सामान्य नहीं-शक्ति से भरपूर तथा ओजस्विता से पूर्ण हैं और वह ओजस्विता आध्यात्मिकता-जनित है। यह निश्चय है कि उनकी वाणी से हमें उत्साह तथा आलोक प्राप्त होगा जिससे हम राष्ट्र का निर्माण सही मायनों में और ठीक ढंग से कर सकते हैं। हमारी यह धारणा ही नहीं, दृढ़ विश्ववास है कि उनकी तेजस्वी वाणी हमारे देश के नवयुवकों में संजीवनी का संचार करेगी जिससे वे हमारे देश तथा राष्ट्र को प्रत्येक क्षेत्र में उन्नत एवं समृद्धिशाली बना करेंगी।
प्रस्तुत पुस्तक ‘‘Vivekananda_ : His Call to the Nation’’ का अनुवाद है। स्वामी विवेकानन्द की संक्षिप्त जीवनी भी इस पुस्तक में जोड़ दी गयी है।
जनसाधारण में स्वामीजी के विचारों के प्रचार एवं प्रसारार्थ इस पुस्तक का मूल अत्यन्त अल्प रखा गया है जिससे कि हर एक व्यक्ति लाभान्वित हो सके।
वास्तुस्थिति यह है कि आज भारत वर्ष में विभिन्न मत-मतान्तरों तथा विचारधाराओं में घोर पारस्परिक संघर्ष पा रहे हैं। फलतः देश भर में बड़ी अनिश्चतता तथा बेचैनी व्याप्त है। हो यह रहा है कि प्राचीन मूल सिद्धान्तों का चिरन्तर सत्य-समूह जिसमें हमें शक्ति दी थी, उत्साह एवं साहस प्रदान किया था, आज मानो एक किनारे खदेड़ दिया गया है और उसकी जगह अनेक नयी राजनीतिक तथा सामाजिक विचारधाराओं ने अपना अड्डा जमा लिया है, यहाँ तक कि आज चारित्रिक मापदण्ड भी बदल रहा है। ऐसा लगता है कि मानो इन सब नवीन विचारों ने देश पर धावा ही बोल दिया हो। यह विचारने की बात हैं !
अतः स्वतः सिद्ध मीमांसा यह है कि आज हमारे सम्मुख एक ऐसा मापदण्ड प्रस्तुत हो जो हमें सब बातों का ठीक सुस्पष्ट तथा असली मूल्य आँकने में सहायता करे और यह चीज नवयुवकों को लिए तो और भी अधिक आवश्यक है जिससे कि वे बिल्कुल सही असंदिग्ध और परिष्कृत मार्ग पर अग्रसर हो सकें।
आज की परिस्थितियों में स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाएँ तथा उनका सन्देश हमारे लिए कितना मूल्यवान है, इसे आँकना सहज नहीं हमारे राष्टीय जीवन का ऐसा कोई पहलू नहीं ऐसी कोई समस्या नहीं जिसका हल उसे उनकी शिक्षाओं में न मिल जाता हो-वे समस्याएं चाहे किसी व्यक्ति की हों, समाज की हों अथवा देश की हों। उनके शब्द सामान्य नहीं-शक्ति से भरपूर तथा ओजस्विता से पूर्ण हैं और वह ओजस्विता आध्यात्मिकता-जनित है। यह निश्चय है कि उनकी वाणी से हमें उत्साह तथा आलोक प्राप्त होगा जिससे हम राष्ट्र का निर्माण सही मायनों में और ठीक ढंग से कर सकते हैं। हमारी यह धारणा ही नहीं, दृढ़ विश्ववास है कि उनकी तेजस्वी वाणी हमारे देश के नवयुवकों में संजीवनी का संचार करेगी जिससे वे हमारे देश तथा राष्ट्र को प्रत्येक क्षेत्र में उन्नत एवं समृद्धिशाली बना करेंगी।
प्रस्तुत पुस्तक ‘‘Vivekananda_ : His Call to the Nation’’ का अनुवाद है। स्वामी विवेकानन्द की संक्षिप्त जीवनी भी इस पुस्तक में जोड़ दी गयी है।
जनसाधारण में स्वामीजी के विचारों के प्रचार एवं प्रसारार्थ इस पुस्तक का मूल अत्यन्त अल्प रखा गया है जिससे कि हर एक व्यक्ति लाभान्वित हो सके।
विवेकानन्द
राष्ट्र को आह्नान
स्वामी विवेकानन्द की संक्षिप्त जीवनी
प्रारम्भिक काल
स्वामी विवेकानन्द का जन्म कलकत्ते में सोमवार 12 जनवरी 1863 को हुआ था।
इसके पूर्व आश्रम का नाम नरेन्द्रनाथ दत्त अथवा
‘नरेन्द्र’
था। पिता थे श्रीमान् विश्वनाथ दत्त तथा माता श्रीमती भुवनेश्वरी देवी।
दत्त घराना सम्पन्न एवं प्रतिष्ठित था; दान-पुण्य-विद्वत्ता और साथ ही
स्वतन्त्रता की तीव्र भावना के लिए संस्कृत के विद्वान थे। उनकी दक्षता
कानून में भी थी। किन्तु योग ऐसा कि पुत्र विश्वनाथ के जन्म के बाद
उन्होंने संसार से विरक्ति ले ली और साधु हो गये। उस समय उनकी अवस्था केवल
पच्चीस वर्ष थी।
श्रीमान् विश्वनाथ दत्त कलकत्ता हाईकोर्ट में वकालत करते थे। अंग्रेजी और फारसी भाषा में उनका अधिकार था-इतना कि आपने परिवार को फारसी कवि हाफिज की कविताएं सुनाने में उन्हें बड़ा आनन्द आता था। बाइबिल के अध्ययन में भी वे रस लेते थे और इसी प्रकार संस्कृत शस्त्रों में। यद्यपि दान-पुण्य तथा निर्धनों की सहायता के निमित्त वे विशेष खर्चीले थे फिर भी धार्मिक तथा सामाजिक बातों में उनका दृष्टिकोण तर्कवादी तथा प्रगतिशील था-यह शायद पाश्चत्य संस्कृति के कारण भुवनेश्वरीजी राजसी तेजस्वितायुक्त प्रगाढ़ धार्मिकतापरायण एक संभ्रान्त महिला थीं। नरेन्द्रनाथ के जन्म के पूर्व यद्यपि उन्हें कन्याएं थीं। पुत्र-रत्न के लिए उनकी विशेष लालसा थी। इस वाराणसी निवासी अपने एक सम्बन्धी से उन्होंने वीरेश्वरशिव-चरणों में मनौती अर्पित करने की प्रार्थना की और कहा जाता है कि फलस्वरूप भगवान शंकर ने उन्हें वचन दिया कि वे स्वयं पुत्ररूप में उनके यहाँ जन्म लेंगे। कहना न होगा, उसके कुछ समय बाद नरेन्द्रनाथ ने जन्म लिया।
बचपन की प्रारम्भिक अवस्था में नरेन्द्रनाथ बड़े चुलबुले और कुछ उत्पाती थे। किन्तु साथ ही आध्यात्मिक बातों के प्रति उनका विशेष आकर्षण था। फलतः राम-सीता, शिव प्रभृति देवताओं की मूर्तियों के सम्मुख ध्यानोपासना का खेल खेलना उन्हें बड़ा रुचिकर था। रामायण और महाभारत की कहानियाँ समय-समय पर वे अपनी माँ से सुनते रहते थे। इन कथाओं से इनके मस्तिष्क पर एक अमिट छाप आयी। साहस, निर्धन के प्रति हृदय वत्सलता तथा रमते हुए साधु सन्तों के प्रति आकर्षंण के लक्षण उनमें सवतः सिद्ध दृष्टिगोचर होते थे। तर्कबुद्धि कुछ ऐसी पैनी थी कि बचपन में ही लगभग प्रत्येक समस्या के समाधान के लिए वे अकाट्य दलीलों की अपेक्षा किया करते थे। इन सब गुणों के प्रादुर्भाव के फलस्वरूप नरेन्द्रनाथ का निर्माण हुआ-एक परम ओजस्वी नवयुवकों के रूप में।
श्रीमान् विश्वनाथ दत्त कलकत्ता हाईकोर्ट में वकालत करते थे। अंग्रेजी और फारसी भाषा में उनका अधिकार था-इतना कि आपने परिवार को फारसी कवि हाफिज की कविताएं सुनाने में उन्हें बड़ा आनन्द आता था। बाइबिल के अध्ययन में भी वे रस लेते थे और इसी प्रकार संस्कृत शस्त्रों में। यद्यपि दान-पुण्य तथा निर्धनों की सहायता के निमित्त वे विशेष खर्चीले थे फिर भी धार्मिक तथा सामाजिक बातों में उनका दृष्टिकोण तर्कवादी तथा प्रगतिशील था-यह शायद पाश्चत्य संस्कृति के कारण भुवनेश्वरीजी राजसी तेजस्वितायुक्त प्रगाढ़ धार्मिकतापरायण एक संभ्रान्त महिला थीं। नरेन्द्रनाथ के जन्म के पूर्व यद्यपि उन्हें कन्याएं थीं। पुत्र-रत्न के लिए उनकी विशेष लालसा थी। इस वाराणसी निवासी अपने एक सम्बन्धी से उन्होंने वीरेश्वरशिव-चरणों में मनौती अर्पित करने की प्रार्थना की और कहा जाता है कि फलस्वरूप भगवान शंकर ने उन्हें वचन दिया कि वे स्वयं पुत्ररूप में उनके यहाँ जन्म लेंगे। कहना न होगा, उसके कुछ समय बाद नरेन्द्रनाथ ने जन्म लिया।
बचपन की प्रारम्भिक अवस्था में नरेन्द्रनाथ बड़े चुलबुले और कुछ उत्पाती थे। किन्तु साथ ही आध्यात्मिक बातों के प्रति उनका विशेष आकर्षण था। फलतः राम-सीता, शिव प्रभृति देवताओं की मूर्तियों के सम्मुख ध्यानोपासना का खेल खेलना उन्हें बड़ा रुचिकर था। रामायण और महाभारत की कहानियाँ समय-समय पर वे अपनी माँ से सुनते रहते थे। इन कथाओं से इनके मस्तिष्क पर एक अमिट छाप आयी। साहस, निर्धन के प्रति हृदय वत्सलता तथा रमते हुए साधु सन्तों के प्रति आकर्षंण के लक्षण उनमें सवतः सिद्ध दृष्टिगोचर होते थे। तर्कबुद्धि कुछ ऐसी पैनी थी कि बचपन में ही लगभग प्रत्येक समस्या के समाधान के लिए वे अकाट्य दलीलों की अपेक्षा किया करते थे। इन सब गुणों के प्रादुर्भाव के फलस्वरूप नरेन्द्रनाथ का निर्माण हुआ-एक परम ओजस्वी नवयुवकों के रूप में।
श्रीरामकृष्णदेव के चरणकमलों में
युवक नरेन्द्रनाथ सिंह-सौदर्य और साहस में पूर्ण सामंजस्य था। उनके शरीर
की बनावट कसरती युवक की थी। वाणी अनुवाद एवं स्पन्दनपूर्ण तथा बुद्धि
अत्यन्त कुशाग्र। खेल-कूद में उनका एक विशेष स्थान था, तथा दार्शनिक
अध्ययन एवं संगीतशास्त्र आदि में इनकी प्रवीणता बड़े उच्च स्तर की थी अपने
साथियों के वे निर्दन्द्व नेता थे। कॉलेज में उन्होंने पाश्चात्य
विचार-धाराओं का केवल अध्ययन ही नहीं किया था, बल्कि उसको आत्मसात् भी और
इसी के फलस्वरूप इनके मस्तिष्क में प्रखर तर्कशीलता का बीजारोपाण हो गया
था। उनमें एक ओर जहाँ आध्यात्मिकता के जन्मजात प्रवृति तथा प्राचीन
धार्मिक प्रथाओं के प्रति आदर था, दूसरी ओर उतना ही उनका प्राचीन धार्मिक
प्रथाओं के प्रति आदर था, दूसरी ओर उतना ही उनका प्रखर बुद्धियुक्त
तार्किक स्वभाव था।
परिणाम यह हुआ है कि इन दोनों विचार-धाराओं में संघर्ष उत्पन्न हो गया। इस द्वन्द्व परिस्थिति में उन्होंने ब्राह्म समाज में कुछ समाधान पाने का यत्न किया। ब्रह्म समाज उस समय की एक प्रचलित धार्मिक, सामाजिक संस्था थी। ब्रह्म समाजवादी निराकार ईश्वर में विश्वास करते थे, मूर्ति-पूजा का खण्डन करते तथा विभिन्न प्रकार के सामाजिक सुधारों में कार्यरत रहते थे। नरेन्द्र का एक प्रश्न यह था
‘‘क्या ईश्वर का अस्तित्व है ?’’ इस प्रश्न के निर्विवाद उत्तर के लिए वे अनेक विख्यात धार्मिक नेताओं से मिले किन्तु सन्तोषजनक उत्तर न पा सके-उनकी आध्यात्मिक पिपासा और भी बढ़ ही गयी।
इसी क्रान्तिक क्षण में उन्होंने अपने प्रोफेसर विल्यम हेस्टी के शब्द याद आये। प्रोफेसर हेस्टी ने बतलाया था कि कलकत्ते के समीप दक्षिणेश्वर में एक साधु निवास करते हैं जिनको वैसी समाधि होती है जैसी वर्डस्वर्थ ने अपनी कविता ‘‘The Excursion’’ में वर्णित की गयी है। इसी बीच कहीं नरेन्द्र के चचेरे भाई रामचन्द्र दत्त ने भी उनमें इन साधु के बारे में जिक्र किया था और प्रेरणा दी थी कि वह यहां जाकर उन साधु के बारे में जिक्र किया था और प्रेरणा दी थी कि वह वहां जाकर उन साधु के दर्शन करें। यह बात कोई 1881 ईशवीं की है-यही शुभ समय था जब कि इन दो महान् आत्माओं का दिव्य मिलन हुआ था- एक, वर्तमान भारत के ईश्वरीय अवतरण भगवान श्रीरामकृष्ण और दूसरी ओर उनके सन्देशवाहक विवेकानन्द। नरेन्द्रनाथ ने उनसे पूछा, ‘‘महानुभाव, क्या आपने ईश्वर को देखा है’’ ‘‘हाँ मैंने उन्हें देखा है ठीक ऐसे ही जैसे तुम्हें देख रहा हूँ बल्कि तुमने भी अधिक स्पष्ट और प्रगाढ़ रूप से’’- श्रीरामकृष्णदेव ने दृढ़ता से उत्तर दिया। बड़े प्रसन्न हुए विवेकानन्द-चलो अन्ततोहत्वा कोई ऐसा तो मिला जो स्वयं अपनी अनुभूति के आधार पर यह तो कह सका कि ईश्वर का अस्तित्व है। नरेन्द्रनाथ का संयम स्वाहा हो गया शिष्य की ‘शिक्षा’ का श्रीगणेश यहीं से प्रारम्भ हुआ।
मनोरंजक बात यह कि यदि श्रीरामकृष्ण ने नरेन्द्रनाथ की विविधरूपेण परीक्षा ले ली थी तो नरेन्द्र भी श्रीरामकृष्ण देव के आध्यात्मिक दावे की सत्यता की जाँच करने में चूके नहीं थे। एक समय ऐसा आ गया था जब 1884 ईसवी में पिताजी के निधन के बाद नरेन्द्रनाथ के परिवार को अनेक कठिनाईयों का सामना करना पड़ा। गुरुदेव ने सुझाव दिया कि दक्षिणेश्वर में माँ काली के श्रीचरणों में प्रार्थना करो जिससे कि परिवार का दुख दूर हो जाय। नरेन्द्रनाथ प्रार्थना करने तो गये किन्तु धन और सम्पत्ति के स्थान पर मांग ली केवल ज्ञान और भक्ति।
परिणाम यह हुआ है कि इन दोनों विचार-धाराओं में संघर्ष उत्पन्न हो गया। इस द्वन्द्व परिस्थिति में उन्होंने ब्राह्म समाज में कुछ समाधान पाने का यत्न किया। ब्रह्म समाज उस समय की एक प्रचलित धार्मिक, सामाजिक संस्था थी। ब्रह्म समाजवादी निराकार ईश्वर में विश्वास करते थे, मूर्ति-पूजा का खण्डन करते तथा विभिन्न प्रकार के सामाजिक सुधारों में कार्यरत रहते थे। नरेन्द्र का एक प्रश्न यह था
‘‘क्या ईश्वर का अस्तित्व है ?’’ इस प्रश्न के निर्विवाद उत्तर के लिए वे अनेक विख्यात धार्मिक नेताओं से मिले किन्तु सन्तोषजनक उत्तर न पा सके-उनकी आध्यात्मिक पिपासा और भी बढ़ ही गयी।
इसी क्रान्तिक क्षण में उन्होंने अपने प्रोफेसर विल्यम हेस्टी के शब्द याद आये। प्रोफेसर हेस्टी ने बतलाया था कि कलकत्ते के समीप दक्षिणेश्वर में एक साधु निवास करते हैं जिनको वैसी समाधि होती है जैसी वर्डस्वर्थ ने अपनी कविता ‘‘The Excursion’’ में वर्णित की गयी है। इसी बीच कहीं नरेन्द्र के चचेरे भाई रामचन्द्र दत्त ने भी उनमें इन साधु के बारे में जिक्र किया था और प्रेरणा दी थी कि वह यहां जाकर उन साधु के बारे में जिक्र किया था और प्रेरणा दी थी कि वह वहां जाकर उन साधु के दर्शन करें। यह बात कोई 1881 ईशवीं की है-यही शुभ समय था जब कि इन दो महान् आत्माओं का दिव्य मिलन हुआ था- एक, वर्तमान भारत के ईश्वरीय अवतरण भगवान श्रीरामकृष्ण और दूसरी ओर उनके सन्देशवाहक विवेकानन्द। नरेन्द्रनाथ ने उनसे पूछा, ‘‘महानुभाव, क्या आपने ईश्वर को देखा है’’ ‘‘हाँ मैंने उन्हें देखा है ठीक ऐसे ही जैसे तुम्हें देख रहा हूँ बल्कि तुमने भी अधिक स्पष्ट और प्रगाढ़ रूप से’’- श्रीरामकृष्णदेव ने दृढ़ता से उत्तर दिया। बड़े प्रसन्न हुए विवेकानन्द-चलो अन्ततोहत्वा कोई ऐसा तो मिला जो स्वयं अपनी अनुभूति के आधार पर यह तो कह सका कि ईश्वर का अस्तित्व है। नरेन्द्रनाथ का संयम स्वाहा हो गया शिष्य की ‘शिक्षा’ का श्रीगणेश यहीं से प्रारम्भ हुआ।
मनोरंजक बात यह कि यदि श्रीरामकृष्ण ने नरेन्द्रनाथ की विविधरूपेण परीक्षा ले ली थी तो नरेन्द्र भी श्रीरामकृष्ण देव के आध्यात्मिक दावे की सत्यता की जाँच करने में चूके नहीं थे। एक समय ऐसा आ गया था जब 1884 ईसवी में पिताजी के निधन के बाद नरेन्द्रनाथ के परिवार को अनेक कठिनाईयों का सामना करना पड़ा। गुरुदेव ने सुझाव दिया कि दक्षिणेश्वर में माँ काली के श्रीचरणों में प्रार्थना करो जिससे कि परिवार का दुख दूर हो जाय। नरेन्द्रनाथ प्रार्थना करने तो गये किन्तु धन और सम्पत्ति के स्थान पर मांग ली केवल ज्ञान और भक्ति।
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book